भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नागार्जुन / शील

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:32, 30 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार= शील }} <poem> तुम्हारा तो... लोहा मान गए, पितर पक्षीय ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारा तो...
लोहा मान गए,
पितर पक्षीय सभ्यता के लोग।
आज नहीं तो कल-
परखेंगे, सूँघेंगे, संस्कृति की गंध।
तुम्हारा तो-
लोहा मान गए
हज़ार-हज़ार चुनौतियों के प्रश्न।
पक्ष या विपक्ष...
अपनपौ या विपनपौ में रहे
बात की बात रही - भाई नागार्जुन
जियो सौ वर्ष पूरे, कालबद्ध करते।
मेरा लोहा...
लोक-जीवन की जठराग्नि में तप रझा है
लाल हो रहा है भाई नागार्जुन!