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निरख सखी ये खंजन आए / मैथिलीशरण गुप्त

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निरख सखी ये खंजन आए

फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाए

फैला उनके तन का आतप मन से सर सरसाए

घूमे वे इस ओर वहाँ ये हंस यहाँ उड़ छाए

करके ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुसकाए

फूल उठे हैं कमल अधर से यह बन्धूक सुहाए

स्वागत स्वागत शरद भाग्य से मैंने दर्शन पाए

नभ ने मोती वारे लो ये अश्रु अर्घ्य भर लाए।