भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम चाहो / अभिज्ञात
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:21, 3 जुलाई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अभिज्ञात }} <poem> तुम चाहो, मत प्रीत जताना तुम चाहो, ...)
तुम चाहो, मत प्रीत जताना
तुम चाहो, आगोश न देना
तुम बिन यदि मैं भटक गया तो
मुझको कोई दोष न देना।
दुनिया भर की रीत निभाओ
मुझसे बंधकर क्या पाओगी
सच पूछो विश्वास नहीं कि
मेरा दर्द बंटा पाओगी
मैं तो कब का छोड़ चुका हूं
लेकर नाम तेरा संसार
मेरे साथ है जीता-मरता
इक तेरा मुट्ठी भर प्यार
मुझे न दुनियादारी भायी
मुझको तुम ये होश न देना।
मैं तो अब तक चलता आया
तेरी सुधि की बांह गहे
पथिक कोई मिल जाये राह में
साथ चल पड़े कौन कहे
संभव है कि बिसरा दूं मैं
तुझ पर लिखे हुए सब गीत
और तेरा विश्वास तोड़ दूं
भूले से मेरे मनमीत
तुम्हें भुलाकर भी मैं जी लूं
मुझको ये संतोष न देना।