भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मीरा हो पाती / अभिज्ञात

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:31, 3 जुलाई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अभिज्ञात }} <poem>दुनिया का बाज़ार भला है खरे परखी ह...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुनिया का बाज़ार भला है
खरे परखी हैं व्यापारी
तेरी एक खुशी के बदले
मैं नीलाम अगर हो पाऊँ।

चाहे वह कोई महफ़िल हो
चाहे वह कोई आलम हो
वह चाहे हँसता वसंत हो
वह चाहे रोता सावन हो
गूँज रहा जो क्षण-क्षण मेरा
गीत, तभी सार्थक हो जाए
तुम सरनाम अगर हो पाओ
मैं बदनाम अगर हो पाऊँ।

हर चेहरे में, तेरा चेहरा
जाने क्यों मन ढूँढ़ रहा है
जैसे कोई अंधापन
स्पर्श से दर्शन ढूँढ रहा है
यह परिचय, अन्तर्मन तक है
यह पहचान और बढ़ जाए
तेरे सिवा, सारी दुनिया से
मैं अनजान अगर हो पाऊँ।

तन से तन का मधुर-मिलन
हो पाएगा, विश्वास नहीं है
भले नैन सौ संगम कर लें
मिटती किंचित प्यास नहीं है
प्रणय-मिलन की ये आतुरता
ले आए ऐसे पथ तक ही
काश कि तुम मीरा हो पाती
मैं घनश्याम अगर हो पाऊँ।