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मैग्नेटिक रेज़ोनेंस इमेजिंग - मुक्तिबोध को याद करते हुए / शिरीष कुमार मौर्य

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( अप्रैल २००७ में मुझ पर एक आफ़त आई और मैंने बदहवासी की हालत में ख़ुद को एम० आर० आई० मशीन में पाया। उस जलती - बुझती सुरंग में मेरे अचेतन जैसे मन में कई ख़याल आते रहे। उन्हें मैंने थोड़ा ठीक होने पर इस कविता में दर्ज़ किया। पता नहीं इसे पारम्परिक रूप में कविता कहा भी जाएगा या नहीं ? )

वहाँ कोई नहीं है
मैं भी नहीं
वह जो पड़ी है देह
हाथ बांधे
दांत भींचे
बाहर से निस्पन्द
भीतर से रह-रहकर सहमती
थूक निगलती
वह मेरी है
लेकिन वहाँ कोई नहीं है

तो फिर मैं कहाँ हूँ ?
क्या वहाँ, जहाँ से आ रही है
नलकूप खोदने वाली मशीन की आवाज़?
अफ़सोस
पानी भी दरअसल यहाँ नहीं है
रक्त है लेकिन बहुत सारा खुदबुदाता-खौलता

लाल रक्त कणिकाओं में सबसे ज़्यादा खलबली है
मेरे शरीर में सिर्फ वही हैं जो लोहे से बनी हैं

होते-होते बीच में अचानक थम जाती है खुदाई
शायद दम लेने और बीड़ी सुलगाने को रुकते हों मजदूर
ठक!
ठक!
ठक!
दरवाज़ा खटखटाता है कोई
मेरे भीतर

सबसे पहले एक खिड़की खुलती है
धीरे से झाँककर देखता हूँ
बाहर
कोई भी नहीं है

सृष्टि में मूलाधार से लेकर ब्रह्मचक्र तक
कोई हलचल नहीं है

मैं दूर ..........
बहुत दूर...
मालवा के मैदानों में भटक रहा हूँ कहीं
अपने हाथों में मेरा लुढ़कता सिर सम्भाले
दो बेहद कोमल
और कांपते हुए हाथ हैं *
पुराने ज़माने के किसी घंटाघर से
पुकारती आती रात है

कच्चे धूल भरे रस्ते पर अब भी एक बैलगाड़ी है
तीसरी सहस्त्राब्दी की शुरूआत में भी
झाड़ियों से लटकते हैं
मेहनती
बुनकर
बयाओं के घोसले

तालों में धीरे-धीरे काँपता
सड़ता है
दुर्गन्धित जल

कोई घुग्घू रह-रहकर बोलता है
दूर तक फैले अन्धेरे में एक चिंगारी-सी फूटती है

वह हड़ीला चेहरा कौन है
इतने सन्नाटे में
जो अपनी कविताओं के पन्ने खोलता है

गूंजता है खेतों में
गेंहूँ की बालियों के पककर चटखने का
स्वरहीन
कोलाहल

तभी
न जाने कहाँ से चली आती है दोपहर
आंखों को चुंधियाती
अपार रोशनी में थ्रेशर से निकलते भूसे का
ग़ुबार-सा उमड़ता है

न जाने कैसे
पर
मेरे भीतर का भूगोल बदलता है

सुदूर उत्तर के पहाड़ों में कहीं
निर्जन में छुपे हुए धन-सा एक छलकता हुआ सोता है
पानी भर रही हैं कुछ औरतें
वहाँ
उनमें से एक का पति फ़ौज से छुट्टी पर आया है
नम्बर तोड़कर
सबसे पहले अपनी गागर लगाने को उद्धत
वही तो संसार की सुन्दरतम
स्वकीया
विकल हृदया है

मैं भी खड़ा हूँ वहीं
उसी दृश्य के आसपास आंखों से ओझल
मुझमें से आर-पार जाती हैं
तरंगे
मगर हवाओं का घुसना मना है

सोचता हूँ
अभी कुछ दिन पहले ही खिले थे बुरुंश यहाँ ढाढ़स बंधाते
सुर्ख़ रंगत वाले
सुगंध और रस से भरे
अब वो जगह कितनी ख़ाली है

इन ढेर सारी आख़िरी
अबूझ ध्वनियों
और बेहद अस्थिर ऋतुचक्रों के बीच
टूट गया है एक भ्रम
एक संशय
मगर अभी जारी है !

  • श्रीमती देवताले के हाथ, जिन्हें मैं दादी जी कहता था और जो अब दुनिया में नहीं रहीं.



रचनाकाल : 2007