कुछ व्यथित-सी / विष्णु विराट
कवि: विष्णु विराट
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कुछ व्यथित-सी
कुछ थकित-सी
कुछ चकित-सी
धूम्रवन से लौट आई लाल परियां
चक्रवाती जंगलों की आंधियों से
वामतंत्री कुचक्रों की व्याधियों से
व्याघ्रवन में सर-सरोवर ख़ौफ़ खाए
कांपते-से हिरन के दल थरथराए
हार कर सब दाव
सारे स्वप्न अपने
कुछ भ्रमित-सी
कुछ श्रमित-सी
प्रकंपित-सी
उस विजन तक जा न पाई
लाल परियां
राग से और रंग से मुंह मोड़ती-सी
स्वर्ण कमलों के प्रलोभन
छोड़ती-सी
नदी झरने जादुई चक्कर घनेरे
हर लहर में मगरच्छों के बसेरे
श्लथ हुए कटिबंध
भींगी कंचुकी में
कुछ डरी-सी
अधमरी-सी
सिरफिरी-सी
हाल कुछ समझा न पाई
लालपरियां
सांध्यवर्णी शुचि ॠचाएं
गुनगुनाते
व्योम से कुछ स्वर्णकेशी यक्ष आते
रंगपर्वों के निमंत्रण दे रहे हैं
गूंजते नभ तक प्रमादी कहकहे हैं
ऊर्ध्वगामी दृष्टियों के निम्न
स्वारथ
देवतामन/ॠषि पुरातन
सब अपावन
स्वस्तिगायन गा न पाईं
लाल परियां।