भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस शहर में / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:08, 20 जुलाई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति }} <poem> इस शहर में बहुत...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस शहर में बहुत रोशनियाँ हैं चलो अंधेरे में चांद देखेंगे
किसी पुल पे बैठ कर चांदनी के शहर का ख्वाब देखेंगे

यहां लड़कियाँ चांद और सूरज की किरनों से बनी हैं
चलो उस गली में कोई वाह देखेंगे

इस शहर में भटकने के लिए बहुत मोड़ हैं
हम हर मोड़ पर खड़े होकर नई राह देखेंगे

इस शहर की दुनिया में कोई बात वाला है ज़रूर
हमें मिले न मिले वो हम हर शख़्स में शाह देखेंगे

तुम मोड़ लो अपना चेहरा किसी अजनबी जैसे
देखना हमको है हम रोज़ तुममें नई चाह देखेंगे