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संभव विडंबना भी / चंद्रसेन विराट

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कवि: चंद्रसेन विराट

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संभव विडंबना भी है साथ नव-सृजन के

उल्लास तो बढ़ेंगे, परिहास कम न होंगे


अलगाव की विवशता

हरदम निकट रही है

इतना प्रयत्न फिर भी

दूरी न घट रही है

होगा विकास फिर भी संभाव्य है विपर्यय

आवास तो बढ़ेंगे, वनवास कम न होंगे।


परिणाम पक्ष में हो

परितोष पर न होगा

हो प्राप्त सफलताएं

संतोष पर न होगा

हर प्राप्ति में विफलता का बोध शेष होगा

हों भोज अधिक फिर भी उपवास कम न होंगे


भौतिक पदार्थवादी

उपलब्धियां बढ़ेंगी

रक्तों रंगी वसीयत

क्या पीढ़ियां पढ़ेंगी?

उपभोग्य वस्तुओं में है वस्तु आदमी भी

सपन्नता बढ़ेगी, संत्रास कम न होंगे।