भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऊँची उड़ान / चंद्रसेन विराट

Kavita Kosh से
पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 21:22, 15 सितम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि: चंद्रसेन विराट

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

जिसकी ऊंची उड़ान होती है।

उसको भारी थकान होती है।


बोलता कम जो देखता ज़्यादा,

आंख उसकी जुबान होती है।


बस हथेली ही हमारी हमको,

धूप में सायबान होती है।


एक बहरे को एक गूंगा दे,

ज़िंदगी वो बयान होती है।


ख़ास पहचान किसी चेहरे की,

चोट वाला निशान होती है।

तीर जाता है दूर तक उसका,

कान तक जो कमान होती है।


जो घनानंद हुआ करता है,

उसकी कोई सुजान होती है।


बाप होता है बहुत बेचारा,

जिसकी बेटी जवान होती है।

खुशबू देती है, एक शायर की,

ज़िंदगी धूपदान होती है।