महास्वप्न / प्रियंकर
कुछ सुना तुमने
प्यार की हवाओं ने अब रुख बदल लिया है
स्नेह की नदी अब अपने चतुष्कोणीय प्रवाह के साथ
हमारी ओर मुड़ चली है
खेतों में प्यार की फसल लहलहा रही है
कुछ सुना तुमने
ज़मीन की तासीर बदल गई है
अब कुछ भी बोओ फसल प्यार की ही उगेगी
स्नेह रक्तबीज बन गया है
अब से वृक्षों की किस्में नहीं होंगी
केवल स्नेह के बिरवे ही रोपे जायेंगे
किसी ने हवा-पानी सब में स्नेह घोल दिया है
राजहंस अब स्नेह की लहरों पर ही तैरेंगे
सोनपाखी प्यार में ही उड़ान भरेंगे
और प्यार ही गाया करेंगे
कुछ सुना तुमने
स्नेह की नदी ने मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे को मांज दिया है
पंचनदों में स्नेह का उफान है गंगोत्री अब स्नेह की गंगोत्री है
और भारत है स्नेह का प्रायद्वीप
कुछ सुना तुमने
सारे अवरोधक बांध तोड़ चुका है स्नेह
गाँव-गली घर-आंगन चौबारे स्नेह से पगे हैं
स्नेह का ज्वार वृक्ष की सबसे ऊंची फुनगी से होता हुआ
मस्जिद की मीनार और मंदिर के कलश को डुबो चुका है
बुजुगों की कहनूत है ऐसा ज्वार
पहले कभी नहीं देखा
ये हो क्या रहा है ?
सब अचरज में हैं
वातावरण में बारूद की नहीं चंदन की महक है
लालिमा अब रक्त की नहीं गुलाल की है लाज की है
बन्दूकें अब स्नेह की बौछार कर रही हैं
बच्चे पिचकारियों और बन्दूकों में फर्क भूल गए हैं
कुछ सुना तुमने
स्नेह की भाषा यौवन पर है
स्नेह से सराबोर सब सकते में हैं
स्नेह का वेगवान प्रवाह
तोड़ चुका है छंदों के बंधन
सारे कवि स्तब्ध हैं सुख की अतिशयता से
बह चली है त्रिवेणी
काव्य की स्नेह की सुख की
कुछ सुना तुमने
अब मानव स्वर्ग का आकांक्षी नहीं
देवताओं में जन्म लेने की होड़ है
कुछ सुना तुमने
अब मैं युगदृष्टा हो गया हूं
सामान्य जन नहीं, मसीहा हूँ स्नेह का ।