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मत हँसो पांचाली / प्रियंकर
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मत हँसो पांचाली
इतना भी मत हँसो
यह वो हँसी नहीं
जो सुख की शांति की उद्गम है
आस्था के सुवासित अक्षांशों से आती
मैत्री की मधुर सरगम है
”नायिका के हँसते ही
खिलते हैं चारों ओर फूल
बिखर जाते हैं सफेद मोती
चाँदनी में नहाते हैं
नदी के दोनों कूल
फैलता है चतुर्दिक स्वर्णिम उजास
उमगती है अंतर में वासन्ती प्यास”
यह कल्पना-विलास की उक्ति
रूमानी गल्प-कथाओं में ही शोभती है
सत्य का सुमेरु तो यही है देवि
तीक्ष्ण हास्य ही बनाता है
सुयोधन को दुर्योधन
ऐसी दाहक हँसी
महासमर ही भोगती है ।