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आस्था का दिशा-संकेत / वीरेंद्र मिश्र

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आंख क्या कह रही है, सुनो-
अश्रु को एक दर्पण न दो।

और चाहे मुझे दान दो
एक टूटा हुआ मन न दो।

तुम जुडों शृंखला की कडी
धूप की यह घडी पर्व है
हर किरन को चरागाह की
रागिनी पर बडा गर्व है

जो कभी है घटित हो चुका
जो अतल में कहीं सो चुका

देवता को सृजन-द्वार पर
स्वप्न का वह विसर्जन न दो

एक गरिमा भरो गीत में
सृष्टि हो जाए महिमामयी
नेह की बांह पर सिर धरो
आज के ये निमिष निर्णयी

आंचलिक प्यास हो जो, कहो
साथ आओ, उमड कर बहो
जिंदगी की नयन-कोर में
डबडबाया समर्पण न दो।

जो दिवस सूर्य से दीप्त हो
चंद्रमा का नहीं वश वहां
जिस गगन पर मढी धूप हो
व्यर्थ होती अमावस वहां

गीत है जो, सुनो, झूम लो
सिर्फ मुखडा पढो, चूम लो

तैरने दो समय की नदी
डूबने का निमंत्रण न दो।