भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

व्यर्थ हो गया / किशोर काबरा

Kavita Kosh से
पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 23:52, 16 सितम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लेखक: किशोर काबरा

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

दृष्टि नहीं तो दर्पण का सुख व्यर्थ हो गया।

कृष्ण नहीं तो मधुबन का सुख व्यर्थ हो गया।


कौन पी गया कुंभज बन कर खारा सागर?

अश्रु नहीं तो बिरहन का सुख व्यर्थ हो गया।


ऑंगन में हो तरह-तरह के खेल-खिलौने,

हास्य नहीं तो बचपन का सुख व्यर्थ हो गया।


भले रात में कण-कण करके मोती बरसें,

भोर नहीं तो शबनम का सुख व्यर्थ हो गया।


गीत बना लो, गुनगुन कर लो, सुर में गा लो,

ताल नहीं तो सरगम का सुख व्यर्थ हो गया।