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परिणति / भारत भूषण अग्रवाल

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उस दिन भी ऐसी ही रात थी।
ऐसी ही चांदनी थी।
उस दिन भी ऐसे ही अकस्मात्,
हम-तुम मिल गए थे।
उस दिन भी इसी पार्क की इसी बेंच पर बैठ कर,
हमने घंटों बाते की थीं-
घर की, बाहर की, दुनिया भर की।
पर एक बात हम ओठों पर न ला पाए थे
जिसे हम दोनों,
मन ही मन,
माला की तरह फेरते रहे थे।

आज भी वैसी ही रात है,
वैसी ही चांदनी है।
आज भी वैसे ही अकस्मात्,
हम-तुम मिल गए हैं।
आज भी उसी पार्क की उसी बेंच पर बैठकर,
हमने घंटों बातें की हैं-
घर की, बाहर की, दुनिया भर की।
पर एक बात हम ओठों पर नहीं ला पाए हैं,
जिसे हम दोनों-
मन ही मन,
माला की तरह फेरते रहे हैं।

वही रात है,
वही चांदनी है।
वही वंचना की भूल-भुलैया है।
पर इस एक समानता को छोडकर,
देखो तो-
आज हम कितने असमान हो गए हैं।
पर नहीं,
अभी एक समानता और भी है,
आज हम दोनों जाने की जल्दी में है,
तुम्हारा बच्चा भूखा होगा,
मेरी सिगरेटें खत्म हो चुकी हैं।