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सदस्य:Mridula
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एकांत के प्रतिबिम्ब मैं, डूबता-उतरता हुआ मेरा मन, अन्तरंग विथियो में परिमार्जित होते हुए मेरे सुख-दुःख, नीले-नीले सपनो को सजाते-संवारते हुए मेरी पलकों के पंख और शब्दों के कोलाहल से भरी हुई, मेरी चुप्पी ने एक दिन, अपना सारा कुछ बाँट दिया उंगलियों को, उंगलियों ने धीरे-धीरे सब कुछ निकलकर डायरी के पन्नो में, रख दिया, अब बांटने जैसा कुछ भी नहीं हैं मेरे पास, तुम्हें दे सकूँ ऐसा कुछ भी नहीं हैं मेरे पास.