भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी / ओमप्रकाश सारस्वत
Kavita Kosh से
					प्रकाश बादल  (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:45, 5 अगस्त 2009 का अवतरण
ज़िन्दगी 
घर-मन्दिरों से ऊब कर
हट कर,उजड़कर
 रेस्टूरेंटों में 
या कॉफी हाऊसों के
उन कटे से कैबिनो में 
घुटन में
सटकर,सिमिट कर 
जा बसी है
जो वहाँ 
कॉफी की कड़वाहट मिटाने को
उसी के संग
चुपके पी रही है
रूप के,रस के
छलकते सैंकड़ों प्याले
कभी नारी की कनखियों से 
कभी नर की नज़र से
 
	
	

