भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह दिया बुझे नहीं / गोपाल सिंह नेपाली

Kavita Kosh से
Mahashakti (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 10:40, 24 सितम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि: गोपाल सिंह नेपाली

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

घोर अंधकार हो¸

चल रही बयार हो¸

आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं

यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ¸

शक्ति को दिया हुआ¸

भक्ति से दिया हुआ¸

यह स्वतंत्रता–दिया¸

रूक रही न नाव हो

जोर का बहाव हो¸

आज गंग–धार पर यह दिया बुझे नहीं¸

यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है।


यह अतीत कल्पना¸

यह विनीत प्रार्थना¸

यह पुनीत भावना¸

यह अनंत साधना¸

शांति हो¸ अशांति हो¸

युद्ध¸ संधि¸ क्रांति हो¸

तीर पर¸ कछार पर¸ यह दिया बुझे नहीं¸

देश पर¸ समाज पर¸ ज्योति का वितान है।


तीन–चार फूल है¸

आस–पास धूल है¸

बांस है –बबूल है¸

घास के दुकूल है¸

वायु भी हिलोर दे¸

फूंक दे¸ चकोर दे¸

कब्र पर मजार पर¸ यह दिया बुझे नहीं¸

यह किसी शहीद का पुण्य–प्राण दान है।


झूम–झूम बदलियाँ

चूम–चूम बिजलियाँ

आंधिया उठा रहीं

हलचलें मचा रहीं

लड़ रहा स्वदेश हो¸

यातना विशेष हो¸

क्षुद्र जीत–हार पर¸ यह दिया बुझे नहीं¸

यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है।