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शामिल कभी न हो पाया मैं / नईम
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लेखक: नईम
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शामिल कभी न हो पाया मैं¸ उत्सव की मादक रून–झुन में जानबूझ कर हुआ नहीं मैं – परम्परित सावन¸ फागुन में क्या कहियेगा मेरे इस खूसठ स्वभाव को? भीड़–भाड़¸ मेले–ठेले से सहज भाव मेरे दुराव को?
जब से होश संभाला तबसे¸ खड़ा हुआ हूं पैरों अपने अनायास आये तो आये देखे नहीं जानकर सपने¸ हुआ हताहत अपनों से पर गया नहीं मैं कहीं शरण में
सच की कसमें खाते खाते– ज़्यादातर जी लिया झूठ में आप हरापन खोज रहे पर क्या पायेंगे महज ठूंठ में?
मुझे निरर्थक खोज रहे हैं एकलव्य या किसी करण में शामिक कभी न हो पाऊंगा – किसी जाति में या कि वरण में