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दोनों ओर प्रेम पलता है / मैथिलीशरण गुप्त
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दोनों ओर प्रेम पलता है
सखि पतंग भी जलता है हा दीपक भी जलता है
सीस हिलाकर दीपक कहता
बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता
पर पतंग पडकर ही रहता कितनी विह्वलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है
बचकर हाय पतंग मरे क्या
प्रणय छोडकर प्राण धरे क्या
जले नही तो मरा करें क्या क्या यह असफलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है
कहता है पतंग मन मारे
तुम महान मैं लघु पर प्यारे
क्या न मरण भी हाथ हमारे शरण किसे छलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है
दीपक के जलनें में आली
फिर भी है जीवन की लाली
किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली किसका वश चलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है
जगती वणिग्वृत्ति है रखती
उसे चाहती जिससे चखती
काम नही परिणाम निरखती मुझको ही खलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है