भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गाँव में चक्का तलाई / अजेय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:51, 14 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजेय |संग्रह= }} <poem> मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो ग...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
गुज़र गई है एक धूल उड़ाती सड़क
गाँव के ऊपर से
खेतों के बीचों बीच
बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ
लाद ले जाती हैं शहर की मंडी तक
नकदी फसल के साथ
मेरे गाँव के सपने
छोटी छोटी खुशियाँ --

मिट्टी की छतों से
उड़ा ले गया है हेलीकॉप्टर
एक टुकड़ा नरम धूप
सर्दियों की चहल पहल
ऊन कातती औरतें
चिलम लगाते बूढ़े
`छोलो´ की मंडलियाँ
और विष-अमृत खेलते बच्चे।

टीन की तिरछी छतों से फिसल कर
ज़िन्दगी
सिमेंटेड मकानों के भीतर कोज़ी हिस्सों में सिमट गई है
रंगीन टी० वी० के
नकली किरदारों में जीती
बनावटी दु:खों में कुढ़ती --
´´कहाँ फँस गए हम!
कैसे निकल भागे पहाड़ों के उस पार?´´

आए दिन फटती हैं खोपड़ियाँ जवान लड़को की
बहुत दिन हुए मैंने पूरे गाँव को
एक जगह/एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा।
गाँव आकर भूल गया हूँ अपना मकसद
अपने सपनों पर शर्म आती है
मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गाँव
बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।