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एक हमारा अप्पू है / नवनीत शर्मा

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एक हमारा अप्पू है
अप्पू मेरा बेटा है
अप्पू मेरा दोश्त है
अप्पू है मेरा भाई
जिशके शारे बाल उड़ा कर
परशों ले गया एक नाई

अप्पू बहुत घुमक्कड़ है
और ढेल-शी बातें करता है
गीदड़ से भी मिलता है
चीयियों शे भी मिलता है
और तोतों शे बातें
करता भी है
फिर घर आकर शारी बातें
चाचा को बतलाता है

कहता है बतलाओ चाचा
ये तोते क्यों पाश नहीं आते हैं
उँगली शे जो पाश बुलाओ
झट शे क्यों उद जाते हैं

तब मैं उसको कहता हूँ
कहीं कोई न पिंजड़े में डाले
हमारी (तोतों की) भाशा न बदल डाले

और पंख उनके जो
टूट जाएँ तो
फिर कैसे उद पाएँगे
जंगल के मैदान में कैसे
गुल्ली-दन्दा खेलेंगे.

कैशे मम्मी-पापा के बिन शैर करने जाएँगे
कैशे चियियाँ, मैना,गीदड़, भालू
शियाड़ शे हाथ मिलाएँगे
इशी लिए उद जाते हैं
तभी तो पाश नहीं आते हैं

इशीलिए तो कहता हूँ
रोज़ शुबह उठ कर बाहर
चूरी डालो तोतों को
फिर उन को उद जाने दो
कल वो फिड़ शे आएँगे
अप्पू को दोश्त बनाएँगे
खेलेंगे चूरी खाएँगे

आँख फिरा कर झूम-झुमा कर
गंजे चाँद पे रख उँगली
धीरे से मुस्काता है
चाचा-पारी करता है
पर फिर बश में बैठ
चला जाता है
फिर चाचा को अप्पू बेटा
महीनों तक याद आता है
हँशता है बतियाता है
और न जाने क्या-क्या.