लेखक: अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
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किसे खोजने निकल पड़ी हो।
जाती हो तुम कहाँ चली।
ढली रंगतों में हो किसकी।
तुम्हें छल गया कौन छली।।1।।
क्यों दिन–रात अधीर बनी–सी।
पड़ी धरा पर रहती हो।
दु:सह आतप शीत–वात सब
दिनों किस लिये सहती हो।।2।।
कभी फैलने लगती हो क्यों।
कृश तन कभी दिखाती हो।
अंग–भंग कर–कर क्यों आपे
से बाहर हो जाती हो।।3।।
कौन भीतरी पीड़ाएँ।
लहरें बन ऊपर आती हैं।
क्यों टकराती ही फिरती हैं।
क्यों काँपती दिखाती है।।4।।
बहुत दूर जाना है तुमको
पड़े राह में रोड़े हैं।
हैं सामने खाइयाँ गहरी।
नहीं बखेड़े थोड़े हैं।।5।।
पर तुमको अपनी ही धुन है।
नहीं किसी की सुनती हो।
काँटों में भी सदा फूल तुम।
अपने मन के चुनती हो।।6।।
उषा का अवलोक वदन।
किस लिये लाल हो जाती हो।
क्यों टुकड़े–टुकड़े दिनकर की।
किरणों को कर पाती हो।।7।।
क्यों प्रभात की प्रभा देखकर।
उर में उठती है ज्वाला।
क्यों समीर के लगे तुम्हारे
तन पर पड़ता है छाला।।8।।