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कोफ़्त से जान लब पर आई है / मीर तक़ी 'मीर'

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कोफ़्त से जान लब पर आई है
हम ने क्या चोट दिल पे खाई है

लिखते रुक़ा, लिख गए दफ़्तर
शौक़ ने बात क्या बड़ाई है

दीदनी है शिकस्गी दिल की
क्या इमारत ग़मों ने ढाई है

है तसन्ना के लाल हैं वो लब
यानि इक बात सी बबाई है

दिल से नज़दीक और इतना दूर
किस से उसको कुछ आश्नाई है

जिस मर्ज़ में के जान जाती है
दिलबरों ही की वो जुदाई है

याँ हुए ख़ाक से बराबर हम
वाँ वही नाज़-ए-ख़ुदनुमाई है

मर्ग-ए-मजनूँ पे अक़्ल गुम है 'मीर'
क्या दीवाने ने मौत पाई है