भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई न कोई / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:32, 20 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी |संग्रह=फिर भी कुछ रह जा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मै रहूँ न रहूँ
होगा ज़रूर
कोई न कोई

नाम बदल जाते
बदल जाते हैं रूप
मगर होता है
हर समय हर जगह
कोई न कोई

राह तो ढूंढ़नी होती है ख़ुद
मगर कर देता है इशारा
कोई न कोई

देखना
जब कुछ भी न पड़े दिखाई
देखना
जब अंधेरा हो घना
और दम घुट रहा हो तुम्हारा
जैसे डूबते हुए आदमी का

देखना
जहाँ भी हो
वहीं

मैं रहूँ न रहूँ
होगा ज़रूर
कोई न कोई।