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विगत / कीर्ति चौधरी
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यही तो था
जिसे चाहा था
सदा दूसरों के पास देख
मन में सराहा था
’अरे हमारे पास भी यदि होता
तो यह जीवन क्या सँकरी गलियों में
बे हिसाब खोता?
हम भी चलते
उस प्रशस्त राज-पथ पर
बढ़ने वालों के क़दमों से क़दम मिला
बोझे को फूल-सा समझते
हम भी चलते
गर्व से सर ऊँचा किए।
पर जो बीत गए हैं कठिन अभावों के क्षण
कहीं वहीं तो नहीं रह गया
वह सरल महत्त्वाकांक्षी मन
आह ! उसके बिना तो सब अहूरा है
वह हर सपना
जो हुआ पूरा है !