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वरुण का आख़री बेटा / श्रीनिवास श्रीकांत

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जलचर, अण्ड और भ्रूणों भरी
उसकी छाती है काँच का तालाब
नेत्र मारते डुबकियाँ
अपने जल में
कभी-कभी आते ऊपर

वह है वरुण का आख़री बेटा
समुद्र को अपने अन्दर जज़्ब किये
समेटे नाभि में
सृष्टि का पहला घोंघा


उसके होने से लगता है
पृथ्वी नहीं लिंगहीन
उभय
संकर
या नरक से भागी देहों की नुमाईश
अतीत
सरिसृप
या टहनियों पर लटके उक़ाब
आदमी के दड़बों से जो झाँकते हों बार-बार

एक पंछी उड़ता है पंखहीन
कल्पना
नींद
और भागते हुए सपनों के साथ
पर लौटकर आता है वहीं
काँच तालाब के पास
जो है आदिम

रहस्यमय
अजूबा
आदमी से समुद्र का
कालान्तर रिश्ता
वक्त टंगा है जहां
रस्सियों पर झूलते
साँपों की मानिंद
वक़्त नहीं गुज़रता
उतारता है स्पेस कैंचुल
नाभि के करवट बदलता है घोंघा

बहती है 'क्लिफ़' से होकर
मृत्यु की नदी
सूर्य होता है एक साथ
अनेक आँखों में विभाजित

काल
सूर्य
और मृत्यु में विभक्त आदमी
देता है मिथक को जन्म
आग को हवा
आकाश को रव
रव को भाषा
और भाषा को पहचान

पहचान पहचान
फूटते हैं दरख़्त
आकाश
ज़मीन
और जल को तराशते

सारी परिक्रमाओं के बाद
बह फिर लौट आता है वहीं
रोयेंदार रीढ़हीन कीड़े के क़रीब
मेज़ मर टिकाये
अपना दाहिना हाथ
शैवाल,फफूंद और जलचरों को
वहन करता
धूप और नमी के बाद
ढोता ज़हन में
झबरा विवेक
जूझता हुआ भय और छदम से
आदमी की हर पराजय के बाद
वरुण का वह आख़री बेटा