भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साहब के हुज़ूर / ओमप्रकाश सारस्वत

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:16, 22 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत | संग्रह=शब्दों के संपुट में / ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साहब के हुजूर कहते हैं कि
पर्वत धन्य हैं
इन जैसा अन्य कौन है

थे इतने ऊँचे होकर भी
नीची खड्डो से
अपना रिश्ता नहीं तोड़ते हैं
ये जोड़ ही रखते हैं उनसे
अपना महाराजी-सम्बंध

पर लोग जानते नहीं शायद
कि बड़ा जो जाने पर ;
अपना नांदी पाठ कराने के लिए
अपनी आरती गवाने के लिए
सम्बन्धों की परम आवश्यकता है

अन्यथा
महोत्सव के समय
उनकी प्रस्तावना कौन बाँधेगा
उनके धराधीश होने की
रघुवंशी कथा कौन बाँचेगा
सारा आयोजन फीका चला जाएगा।
लालसा-सिन्धु रीता रह जाएगा

पर हाँ, ये खड्डें
यदि इन महानदियों का
कीर्तिजल ढोना बन्द कर दें
उनकी बाँदियाँ होना
बन्द कर दें
(जिनके मुँह में सदा
प्रशंसा की इलायची रहती है)
तो मैं कह सकता हूँ कि
ये गर्वोन्नत दम्भी शिखर
(जो किसी की भी उच्चता को
नीचता से देखते हैं)

एक दिन खुद ही
गिर-गिरा जाएंगे
ये स्तुतिपाठक न मिलने पर
स्वयं मर-मरा जाएंगे