भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नदी गुम हो चली है / सरोज परमार
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:52, 22 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज प...)
बौनी सोच के घोड़ों पर टापते
सवार
पाल रहे हैं दम्भ
वक्त को मुट्ठियों में भींचने का।
वक्त शातिर है
बह जाता है हहरा कर
बहा ले जाता है कग़ार तक।
आकाश मुद्रा वाले लोग
आज भी प्रतीक्षारत हैं
होगा कोई अवतरित आसमान से
और दे जाएगा पुलिन्दा
समाधान के आश्वासनों का।
कुछ गलीज़ कुत्ते
नथुने फुला-फुलाकर
हड्डी की गन्ध वाले पैरों की
परिक्रमा कर चूम-चाट रहे हैं
गोया अपनी और उनकी
दूरी पाट रहे हैं।
धूप-धूल मिट्टी-पसीने से
परहेज़ करने काली पीढ़ी
वैश्वीकरण, मुक्तबाज़ार को
समझने की कोशिश में बौराने लगी है।
और करने लगी है जुगाली
लालू,ललिता लेविंस्की प्रकरण की।
वैचारिक संक्रमण के इस दौर में
नदी गुम हो चली है रेत के समन्दर में।