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किंचित ख़ामोशी दे दो / सरोज परमार

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मेरी जंग लगी कड़कड़ाती हड्डियाँ
ठंड से जद्दोजहद करते हुए
मंज़िल दर मंज़िल भाग रही है।
यादों के मलबे से बीन रही है
टूटी हरे लाल रंग की चूड़ियाँ।
जिनमें कैद था कच्चे दूधिया सपनों का रंग
जिनमें छितराए थे कहानियों के बिम्ब।
जिनमें सिमटी थी हल्दी रोली की गन्ध।
जिनमें बसी हुई थी यादों की ख़ुश्बू।
इसी मलबे में मिल गया था
उसी अँगूठी का नग
जो गोटेदार चुनरी में लिपटी
अबोले बोल को
बन्दनवार की छाँव में
तुमने पहनाई थी।
क्या वक्त ने मुझे ही धकियाया है
या कुछ तुम्हें भी तराशा है
वो कौन सा हादसा था
जब मेरी आँखों में उग आए थे हज़ारों प्रश्न
तुम्हारे होंठों पर अगणित अपेक्षाएँ।
आज तो महज़ याद है
जिस्म का छिलना
जो संवेदनविहीन होकर
मौसम को गरिया रहा है।
बासीपन कब तक सहेजूँ?
कब तक संवारूँ?
दर्द को कोख में थामें
बरसों आग पर सोयी हूँ
पर सृजन नहीं होता।
ओ सूरज !
किंचित खामोशी दे दो
यह प्रसव वेदना सही नहीं जाती।