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लफ़्ज़ों की काश्त कैसे करूँ? / सरोज परमार

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जाने कितने कल्प मेरे भीतर से
गुज़र गये
कितने इतिहासों की इबारतें मैंने लिखी
कितने खण्डहरों को अपने गर्भ में समोया
कितनी रंगीनों को अपने जिस्म में पिरोया
पर
तुम्हारा ज़नून अभी कायम है।
उस पर धुंधुआते मज़हब की तह
और मोटी हो गई है।
क्या तुमने
बच्चों के बदहवास चेहरे देखे हैं ?
जिन्हें फूलों और परियों की जगह
अब बमों और जिन्नों के सपने
आते हैं।
जब-जब पँखनुची तितलियों को
दुच्ची फ़ख्ताएँ चुग जातीह ऐं
तब-तब औरतों के चेहरे-कोहरे
में बदल जाते हैं।
ओ बदहवास घोड़े !
यह बीमार सी शामें
लम्बी होती रातें
देर से उगती सुबहें
सब तेरी बदौलत है।
धमकियों और धमाकों के शोर से
बहरे पड़ गये कान
खून के छींटों से धुँधलाई आँखें
आदम बू घुस आई है नथुनों में
टूट गये हैं पँख़
छालों भरी है जिव्हा
तुम्ही कहो !
मैं लफ़्ज़ों की काश्त कैसे करूँ ?
कैसे ?