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लाल रुमाल / सरोज परमार
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चाँदनी को देखने की लालसा
अब मरी हुई मछली सी बदबूदार लगती है
इसे सहना अब वश की बात नहीं रही।
वे दिन पीछे छूट गए हैं।
आज तो कचनार की पत्तियों से झाँकती चाँदनी
अतीत की गलियों में ला पटकती है
रुई के फाहों सी गदबदी चांदनी
अब पिघलती मोम की गुड़िया के सिवाय
कुछ नहीं लगती।
क्यों याद कराते हो तुम उन दिनों और सपनों को
जो मर तो गए हैं पर लाश दफनाने को है।
कई गड्ढे खोद चुकी हूँ इस अंतस में
पता नहीं क्यों ? कैसे? वे लाशें दूने वेग
से उग आती हैं
पूछती हैं--- हताश कौन?
अचानक सत्य के प्रेत हावी हो जाते हैं
डराते हैं,धमकाते हैं
मैं अपने हाथ का लाल रुमाल
छुपाने का प्रयत्न करती हूँ।