भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आदमी-१ / सरोज परमार
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:43, 22 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह= घर सुख और आदमी / सरोज परमार }} [[C...)
12 वीं शती के दहलीज़ पर
खड़ा पत्थर-युग से आ जुड़ा
है आदमी
अब पत्थर चबाता,पत्थर मारता ही
गपियाताअ है ।
यह अलग बात है
कोई सामने से पथराव करता है
इज्जत तोडता है कोई
छिपकर,पथराकर।
कभी कोई कवि
आमदा होता है
सलीका गाने को
चलन समझने को
सहस्रों चोंचें
खाल उधेड़ती है,माँस नोचती हैं
वह डरकर पत्थर ही बन जाता है
दर्द का नश्तर
उसे भी नहीं चुभता
फिर वह भी पत्थार मारता ही
बतियाता है ।