भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो बचेगा / सुदर्शन वशिष्ठ

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:37, 23 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ |संग्रह=सिंदूरी साँझ और ख़ामोश ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह देखेगा
प्रलय की बाढ़
डूबती कश्तियाँ
वन वनस्पतियाँ
चीखते लोग बहते ढोर
और
अन्न औषधि के बीज लिये मनु।

जो बचेगा
वह देखेगा
अपार जलराशि में अकेला मार्कण्डेय
और वट वृक्ष से झूलते
पालने में हंसता शिशु।

अजब है प्रलय की गाथा
एक ओर है विनाश
दूसरी ओर सृजन
बचे रहने की ज़दोज़हद भी है।

यह सब वही देखेगा
जो बचेगा।

बचे हुए लोगों की आशंका और आस
उनका भय और विश्वास
सृजन के पहले अँकुर
नन्ही कोंपले
उन पर चमकती ओस।

जो बचेगा
वह देखेगा
लंका काँड, महाभारत
टूटता बनता बिग़ड़ता भारत।

वह देखेगा
बार-बार होते चुनाव
आपसे में लड़ते भिड़ते पक्ष विपक्ष
पक्ष पक्ष और विपक्ष विपक्ष।

बह पढ़ेगा
भूकम्प में दबे लोगों के दारुण चित्र
गैस में पीड़ित दरिद्रों की छटपटाहट
ज़हरीले निकास से हुये अपंग
दंगों में मरते इन्सान
डकैती हत्या और बलात्कार की
सनसनीखेज़ ख़बरें।

वह देखेगा
एक दूसरे पर गरजते बरसते
बाहर निकल गलबाहियाँ डालते
एक दूसरे पर लगाते आरोप प्रत्यारोप
टेलिफोन में घुसे सफेदपोश।

जो बचेगा सुनाएगा किस्से
लिखेगा दास्तान ददींले दिनों की
बही बखानेगा कहानी
युद्ध की।
जो बचेगा वही होगा कथानायक
ज़िन्दा रहना है ज़रूरी
कथानायक बनने के लिये।