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सहगल भाई शिमला आओ / सुदर्शन वशिष्ठ

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सुबह

दाँत साफ करते हैं
नहाते हैं
दूसरों के लिए
साफ सुथरे कपड़ॆ पहनते हैं
इतर सैंट लगाते हैं
सहगल कहते हैं।

जनवरी बीत गया
अभी बर्फ नहीं गिरी
नहीं हुई सर्द हवाएं
फरवरी में गर्मी है।

जून बीता जुलाई आया
है ये ग्लोबल
चैंज पक्षी सहमें सहमें से रहते हैं
सहगल कहते हैं।


कभी सहगल भाई शिमला आते हैं
बहुत सोचने विचारने के बाद
लेखक गृह में वे अब नहीं रहते
वहाँ खटमल खाते हैं

कहीं कमरा बुक कराईये
शिमला रहणा है।
जहाँ सड़कों में सैलानी बहते हैं
गलियों में बन्दर रहते हैं
सहगल कहते हैं।

सहगल भाई !
शिमला नहीं रहा अब शहर पुराना
जहाँ बहते थे झरने
चलते थे रिक्शा।

बिकती थी मूँगफली की पुड़िया
एक गाँव छोटा था छोटा शिमला।

शिमला अब वह शिमला नहीं रहा
जहाँ रहती थीं शेरगिल अमृता
जहाँ खेलते थे वर्मा निर्मल
जहाँ पढ़ाते राकेश मोहन
जहाँ घूमते गायक सहगल।

बना है शिमला
भीड़ भरा वीराना
कँकरीट भरा ठिकाना
रखे हैं मकान माचिस की डिबियों से
नहीं बची ऊँची मचान
जहाँ मिटाए कोई थकान
गाड़ियों के साथ दौड़ते होटल के लड़के
फेंकते जोर से बिल्ले मज़दूर
घूमते बाबू मज़बूर
क्या अब भी शिमला आओगे
सहगल भाई !
सहगल भाई
शिमला में मिलते हैं अब रोज़
कुछ सूस्त, कुछ मदमस्त,
कुछ पिलपिले,कुछ चिपचिपे साहित्यकार
नाम होंगे जिनके निर्मल राकेश मोहन वर्मा
कार्यक्रमों के बादलों से पहले मालरोड़ पर रेंगते
करेंग़े तुमसे यह समीक्षा लिखवाने की गुहार
सामने तश्तरी परोसते
पठ होते ही कोसते
पूछना मत इसे मेरा पता
कह देंगे ये
नहीं है वह आजकल यहाँ
नहीं देखा माल रोड़् पर कई दिनों से
बदल लिया है उसने घर, मोबाईल
सारा चाल-चलन
नहीं पकड़ी है बरसों से कलम।

सहगल भाई
मुझ से करो
अपने मन की बात
यूँ चुप न रहो
दिन ढले बर्फ गिरे
रात भी गिरती रहे
सुबह हो बर्फ ही बर्फ
हम उठे और बुत बनाएँ
एक नामचीन आलोचक का
उसे किताबें दिखा रिझाएँ
करें उसके सम्मुख
ज़ोर ज़ोर से सस्वर कविता पाठ।
यह अब सपना है शिमला के लिए
फुटों बर्फ हुआ करती थी यहाँ
नहीं खुल पाते दरवाज़े
दिल खुले होते
चुप रहते नल कई दिन
रोशनी सो जाती
मन में उजाले करते।

यह कविता उसके लिए
जो न है प्रताप सहगल
न है विजय सहगल
कहते हैं जिन्हें सत्यपाल सहगल।