भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूले-फूले पलाश / नचिकेता

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:53, 24 अगस्त 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फूले फूल पलाश कि सपने पर फैलाए रे

फिर मौसम के लाल अधर से
मुस्कानों की झींसी बरसे
आमों के मंजर की खुशबू पवन चुराए रे

पकड़ी के टूसे पतराए
फूल नए टेसू में आए
देवदार-साखू के वन लगते महुआये रे

धरती लगा महावर हुलसी
ठुमक रही चौरे पर तुलसी
हरी घास की हरी चुनरिया सौ बल खाए रे

धूप फसल का तन सहलाए
मन का गोपन भेद बताए
पेड़ों की फुनगी पर तबला हवा बजाए रे

वंशी-मादल के स्वर फूटे
गाँव-शहर के अंतर टूटे
भेद-भाव की शातिर दुनिया इसे न भाए रे।