वह जीवन का बूढ़ा पंजर / सुमित्रानंदन पंत
खड़ा द्वार पर लाठी टेके
वह जीवन का बूढ़ा पंजर
चिमटी उसकी सिकुड़ी चमड़ी
हिलते हड्डी के ढाँचे पर
उभरी ढीली नसें जाल सी
सुखी ठठरी से हैं लिपटी
पतझड़ में ठूंठे तरु से ज्यों
सूनी अमरबेल हो चिपटी
उसका लंबा डीलडौल है
हट्टी कट्टी काठी चौड़ी
इस खंडहर में बिजली सी
उन्मत्त जवानी होगी दौड़ी
बैठी छाती की हड्डी अब
झुकी रीढ़ कमठा सी टेढ़ी
पिचका पेट गढ़े कंधों पर
फटी बिवाई से है एड़ी
बैठ टेक धरती पर माथा
वह सलाम करता है झुककर
उस धरती से पाँव उठा लेने को
जी करता है क्षण भर
घुटनों से मुड़ उसकी लंबी
टाँगें जांघें सटी परस्पर
झुका बीच में शीश झुर्रियों का
झांझर मुख निकला बाहर
हाथ जोड़ चौड़े पंजो की
गुँथी अंगुलियों को कर सम्मुख
मौन त्रस्त चितवन से
कतर वाण से वह कहता निज दुख
गर्मी के दिन धरे उप रानी सिर पर
लूँगी से ढांपे तन
नंगी देह भारी बालों से
वन मानुष सा लगता वह जन
भूखा है पैसे पा कुछ गुनगुना
खड़ा हो जाता वह घर
पिछले पैरों के बल उठ
जैसे कोई चल रहा जानवर
काली नारकीय छाया निज
छोड़ गया वह मेरे भीतर
पैशाचिक सा कुछ दुखों से
मनुज गया शायद उसमें मर