भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चौकियाँ / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
कुमार मुकुल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:31, 25 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार मुकुल |संग्रह=परिदृश्य के भीतर / कुमार मुक...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब खच्‍चरों और गदहों पर अँटी नहीं होगी खानाबदोश जिन्‍दगी थोडा और सभ्‍य थोडा और जड होने की जब जरूरत महसूस हुई होगी तब मस्तिष्‍क के तहखानों से बैलगाडियों के साथ-साथ निकली होंगी चौकियाँ भी

शायद उस काल भी थे देवता जो चलते थे पुष्‍पकों से या मंत्रों से जो आज भी जा रहे हैं चॉंद और मंगल की ओर तब से चली आ रही हैं बैलगाडियाँ भी सभ्‍यता का बोझ ढोतीं

जब बी-29 पर लदे परमाणु अस्‍त्र हिरोशिमा पर सभ्‍यता का भार हल्‍का कर रहे थे एक घुमक्‍कड खच्‍चरों पर अपनी सभ्‍यता लादे तिब्‍बत से लद्दाख का रास्‍ता तलाश रहा था उसी समय कलकत्‍ते में लोग चौकियों पर चौकियां जमा रहे थे चॉंद की ओर जाने का यही ढंग था उनका।