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कवि का प्रवेश / सत्यपाल सहगल
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एक कवि का आना
आराम से थैला लटकाए
आपकी नींद में
शराब पीना बतियाना देर तक
हर मुस्कान हर समर्थन
मित्रता के हर उदगार में
धनुष की तरह खींचा हुआ माथा
1989 के एक कवि का बयान है ये
जब वह मिला
एक दूसरे कवि से
यूँ वे दरवाज़ों की तरह खुले थे
आगंतुकों के लिए
पर न जाने किस गुमी हुई चीज़ को ढूँढने में व्यस्त थे
लम्बे समय से निरंतर
उन्हें एक दूसरे का भेद पाने का कोई आग्रह नहीं था
फिर भी भेद खुल रहे थे
वे अपने कवि होने के सिक्के को
बार-बार जेब से निकाल रहे थे
और उसकी खनक को देखते खुश थे
वे मनुष्य जैसी किसी चीज़ की
बार-बार पहचान कर खुश थे
वे खुश थे जीवन को देखकर
और कई चीज़ों के प्रति
फिर से आश्वस्त थे।