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प्रेम में कवि / सत्यपाल सहगल
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उसे ऐसे छुओ
जैसे तुम उतारते हो पट्टी ज़ख़्म से
ब्यान से उसे छुओ
वह सुबह की झील के पानी की तरह
हल्का-हल्का हिल रहा है
वह हमारी सभ्यता का एक थका हुआ मनुष्य है
वह हमारी सभ्यता का अकेला मनुष्य है
जो अकेला हुआ
दूसरों के बारे में सोचता-सोचता
वह अभी एक दरवाज़े से निकल कर आया है
कुछ बदला हुआ
पर सच मैं धूल में पड़ा उसका एक हिस्सा बस पुँछा है
यद्यपि उसे कई देर तकआराम मिला
पर अब एक विस्तृत थकान के आनन्द में डूबा है वह
जिसके अर्थ जानने को वह
एक कविता से दूसरी कविता तक दौड़ रहा है