भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नज़्म उलझी हुई है सीने में / गुलज़ार

Kavita Kosh से
203.92.61.5 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 15:11, 11 अप्रैल 2008 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: गुलज़ार

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी