भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो ख़त के पुरज़े उड़ा रहा था / गुलज़ार
Kavita Kosh से
202.91.79.135 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 01:49, 23 अक्टूबर 2006 का अवतरण
रचनाकार: गुलज़ार
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
वो ख़त के पुरज़े उड़ा रहा था
हवाओं का रुख़ दिखा रहा था
कुछ और भी हो गया नुमायाँ
मैं अपना लिखा मिटा रहा था
उसी का इमान बदल गया है
कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था
वो एक दिन एक अजनबी को
मेरी कहानी सुना रहा था
वो उम्र कर रहा था मेरी
मैं साल अपने बढ़ा रहा था