भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शाम अपनी न है सहर कोई / साग़र पालमपुरी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:51, 31 अगस्त 2009 का अवतरण ()

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शाम अपनी है न है सहर कोई
कोई हमदम न हमसफ़र कोई

कितना बेसिम्त हो गया इन्साँ
कोई मंज़िल न रहगुज़र कोई

तेरा मसकन उजड़ गया कब का
आरज़ू ! ढूँढ और घर कोई

अब तो इस जिस्म के बियाबाँ में
गाँव ही है न है नगर कोई

फिर तेरे सामने है आईना
ख़ुद पे इल्ज़ाम आज धर कोई

फूल की तो यही तमन्ना है
देख ले उसको इक नज़र कोई

हम गली में खड़े रहे दिनभर
फिर भी आया न बाम पर कोई

आज अपना सँवार ले ‘साग़र’
और कल की न फ़िक्र कर कोई