भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ पावस के पहले बादल / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:21, 9 सितम्बर 2009 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ओ पावस के पहले बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे मन-प्राणों पर बरसों।


यह आशा की लतिकाएँ थीं


जो बिखरीं आकुल-व्‍याकुल-सी,

यह स्‍वप्‍नों की कलिकाएँ थीं

जो खिलने से पहले झुलसीं,

यह मधुवन था, जो सुना-सा

मरुथल दिखलाई पड़ता है,

इन सुखे कूल-किनारों में

थी एक समय सरिता हुलसी;

आँसू की बूँदें चाट कहीं

अंतर की तृष्‍णा मिटती है;

ओ पावस के पहले बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे मन-प्राणों पर बरसों।


मेरे उच्‍छ्वास बने शीतल

तो जग में मलयानिल डोले,

मेरा अंतर लहराएँ तो

जगती अपना कल्‍मष धो ले,

सतरंगा इंद्रधनुष निकले

मेरे मन के धुँधले पट पर,

तो दुनिया सुख की, सुखमा की,

मंगल वेला की जय बोले;

सुख है तो औरों को छूकर

अपने से सुखमय कर देगा,

ओ वर्षा के हर्षित बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे अरमानों पर बरसो।

ओ पावस के पहले बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे मन-प्राणों पर बरसों।


सुख की घ‍ड़ियों के स्‍वागत में

छंदों पर छंद सजाता हूँ,

पर अपने दुख के दर्द भरे

गीतों पर कब पछताता हूँ,

जो औरों का आनंद बना

वह दुख मुझपर फिर-फिर आए,

रस में भीगे दुख के ऊपर

मैं सुख का स्‍वर्ग लुटाता हूँ;

कंठों से फूट न जो निकले

कवि को क्‍या उस दुख सें, सुख से;

ओ बारिश के बेख़ुद बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे स्‍वर-गानों पर बरसों।

ओ पावस के पहले बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे मन-प्राणों पर बरसों।