मैं छोटी बढ़ई / निर्मला गर्ग
मैं बढ़ई होना चाहती थी
कितना रोमांचकारी होता है तख्ते पर आरी चलाना
यह खयाल मुझे कहां से आया?
शायद बाई जूई की किताब पढ़ते हुए
हालांिक उसमें बढ़इगिरी का जिक्र तो था नहीं
किसी पक्षी के बारे में कुछ था
मुझे याद आया कठफोड़वा
दरभंगा में बाड़ी में देखा था
दिल्ली आने के बाद तो इन सबकी गंुजाइश बची नहीं
ढक ढक
कठफोड़वा वृक्ष के तने में छेद कर रहा था
आरी जैसी थी उसकी लंबी चोंच
सच्िचदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय
बड़े किव गद्यकार थे
पर बढ़ई भी कोई कम न थे
अपने अंितम दिनों में बनाया उन्होंने रहने के लिए
पेड़ पर कमरा देखने आए
किव पत्रकार
चिंतक नाटककार
इतिहासकार दाशर्िनक
मैं छोटी बढ़ई होती
बच्चों के लिए बनाती
छुक छुक गाड़ी
सुग्गा
टोप लगाए फौजी
खिलौने विहीन बचपन में उनसे कैसी रौनक आती!