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दर्पन है सरिता / निर्मला जोशी
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जिस दिन से वह ललित छंद उतरा मुंडेर पर
आंखों की सरिता जैसे दर्पण लगती है।
अंग-अंग जो सिहरन थी
अब मंद हो गई।
अनचाहे ये कलियां
बाजूबंद हो गई।
लगता है अब गीत-विहग उतरेगा द्वारे
आज अचानक तेज़ बहुत धड़कन लगती है।
पीकर सारी गंध
मचलना या गदराना।
उतर गया हो जैसे
मथुरा में बरसाना।
कल तक जिसका परस मुझे कंपित करता था
आज वही मूरत मुझको सिरजन लगती है।
हरी दूब पर पांव
रखे तो बिखरे मोती।
बहुत असंभव सुखद
संपदा कैसे खोती।
अनायास ही जो प्रतिमा घर तक आ जाए
उसे देख जीवन-धारा अर्पण लगती है।
भोर वसंती हो या हो
संध्या मदमाती।
भेज रही है बिना पते की
लिख-लिख पाती।
कल तक जिसका मौन मुझे पीड़ा देता था
आज वही नदिया मुझको गुंजन लगती है।