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देखो न... / प्रतिभा सक्सेना

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<poet> दो-चार यूनिफ़ार्मवाले भूरे स्वेटर बिखरे हैं, मोज़े उतारे हुए इधर-उधर डाल गए, जिसे जहाँ जगह मिली, बच्चों के फेंके हुए कपड़े ये मैले हैं! कोने में सिमटे थे कुछ रुमाल चुन्नियाँ भी नटखट झोंके हवा से सब उछाल गए बादल के टुकड़े ये जहाँ-तहाँ फैले हैं! खेल-खेल खाते रहे, उछल-कूद पूरे में हल्ला मचाते रहे दूध-भात छींट सारे नीले गलीचे पर! चाँदी की थाली में बैंगन की सब्ज़ी छुई भी नहीं, जैसी की तैसी पड़ी है वहीं की वहीं! चाँद आज पूरा है! फैले उजास में उतावले हो भाग गए छुपा-छुपी खेलने को, छोड़-छाड़ यों ही सब! बच्चे मनमाने कुछ पूछा-बताया नहीं! घर में साँझ-बाती कर, अम्माँ गईं थीं उधर दीप धरने के लिए तुलसी के चौरे पर! दूध-भात बिखरा, उछाले हुए कपड़े और छौंके हुए बैंगन धरी चमकदार थाली का पूरा परिदृश्य चित्रलिखित-सा सामने पा देखतीं अवाक् खड़ी, और यहाँ कोई नहीं! </poet>