कभी / तरुण भटनागर
कभी,
किसी बासी चादर में संूघंूगा,
उस पर गुजरी,
सुख भरी नींद की गंध।
कभी,
पेपरवेट के नीचे दबे,
थप्पी भर कागज,
बह जाएंगे,
उसी हवा में,
जिसमें वे फडफड़ाते रहते हैं।
कभी डोरमैट में झड़कर गिरी मिट्टी में से,
मैं वह मिट्टी छाटंुगा,
जो मेरे गांव से आई है,
पिरिचत पैरों में चिपककर,
अपिरिचत की तरह झड़ जाने।
कभी,
कोई फूल बच जाएगा,
सुबह फूल चुनने वाले पुजारी की नजर से,
पत्तों में छुपकर,
हो जाएगा बीज,
दुनिया से दुबककर।
कभी,
मोहल्ले के बच्चे,
मेरे हिस्से का,
पिट्ठुल का वह खेल खेलेंगे,
जो बचपन में मैं खेल नहीं पाया था,
पापा की डांट की डर से।
कभी,
जमीन से बाहर निकलती सूखी जड़ पर,
एक हरी गांठ सी उभरेगी।
कभी,
मुदार् जमीन पर बनेगा एक घर,
गाएंगी घंूघट वाली आैरतें,
ढोलक पर,
बन्नो का बार-बार सुना एक सा गीत।
कभी,
पहरूंगा वही चप्पल,
जो घिसती नहीं है,
छोड़ती जाती है अपने निशान,
धूप में पिघलते रोड़ के डामर पर।