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समुद्र किनारे शाम / तरुण भटनागर

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पुलिन को धोने में,
लहरों की हर वापसी के बाद,
रेत पर चमचमाती परत,
मानों-
लकड़ी पर वानिर्श,
इलेक्टरोप्लेटिंग साल्यूशन से हाल निकली सोने की प्लेट,
रोने के बाद आंख की पुत़ली,
सहवास के बाद मन,
  ़ ़ ़़ ़ ़

परत,
जिस पर बेतकल्लुफ अपना सिर टिका,
क्षितिज तक पसार देता है,
अपना थका शरीर,
सपनों डूबा शाम का सिंदूरी आलोक।

सोया शरीर,
जिसे जगाने,
जिसे जगाते,
कमज़ोर हो गई लहरें,
उछालती है,
पिंग पांग गेंद।

जगाने की एक आैर कोशिश,
जब हवा उल्टी बहेगी,
सोये शरीर के ऊपर से,
क्षितिज से तट तक,
जानकर भी,
जो हमेशा जाना,
कि, समय की कंुभकणीर् नींद।
पर क्या पता,
शायद हो जाय,
शाम के बाद दोपहर ़ ़ ़।

शाम को पलटने की कुश्ती के,
कुछ मूक दशर्क,
अभ्यस्त से नारियल के पेड़।
क्या जान पाते हैं?
उन पर छिटका सिंदूरी आलोक,
चाहे-अनचाहे,
अपनाने कुश्ती में ़ ़ ़।

किनारे है, एक रोड़,
रोड पर चहलकदमी करते लोग,
चुनकर शाम,
शाम से दूर
क्या कभी जान सकते हैं?
समुदर् की हार की हताशा।
मेरी जात के लोग,
कट-कट से दूर,
जिन्हें ध्यान भी नहीं जाता,
कि कितनी आसानी से,
हो गई रात।

चलते समय,
मैंने अपने कान आैर मंुह पुलिन से उठा लिये,
बस आंखें छोड़ दी,
जो आज भी,
रेत पर समुदर्ी केकड़ों के,
बिलों के पास पड़ी है।
मैं समुदर् को,
आैपचारिक विदा कह देता,
पर तब तक,
शाम अंधेरों तक बढ़ गई।