भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये तो तय है / माधव कौशिक
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:57, 15 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माधव कौशिक |संग्रह=अंगारों पर नंगे पाँव / माधव क...)
ये तो तय है रोशनी को अब कहाँ रख जाऊँगा।
खोलकर सबके ज़ेहन की अब खिड़कियाँ रख जाऊँगा।
जो जला करते हैं महलों को सजाने के लिए,
उन चिराग़ों में बग़ावत का धुआँ रख जाऊँगा।
पहले मुझको सच को सच लिखने का मौका दीजिए,
काट कर फिर खुद ही अपनी उँगलियाँ रख जाऊँगाअ।
आने वाली पीढ़ियों को कुछ तो आसानी रहे,
रास्ते भर ख़ून के ताज़ा निशाँ रख जाऊँगा।
जिनमें अब पिछली रुत की याद भी बाक़ी नहीं,
उन निग़ाहों में महकता आसमाँ रख जाऊँगा।
वक़्त की आँधी भी जिनको रोक पाएगी नहीं,
आँधियों की कोख़ में वो आँधियाँ रख जाऊँगा।
जिसको पढने के लिए आँख नहीं दिल चाहिए,
धूप की शबनम पे दिल की दास्ताँ रख जाऊँगा।