भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़त्म होता है सभी का रास्ता / माधव कौशिक

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:33, 15 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माधव कौशिक |संग्रह=सूरज के उगने तक / माधव कौशिक }} <...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़त्म होता है सभी का रास्ता दहलीज़ पर।
आईये रख दें जला कर इक दिया दहलीज़ पर।

घर से बाहर पाँव कया निकले कि सब कुछ लुट गया,
अबके सारी बात जाकर सोचना दहलीज़ पर।

जो भी कहना है यहीं कह लीजिए दिल खोलकर,
आँख में आँसू लिए मत रोकना दहलीज़ पर।

गाँव की देहरी को छोड़े एक अरसा हो गया,
याद है अब तक किसी का देखना दहलीज़ पर।

जिसने अपनी शक्ल देखी सकपका कर रह गया,
जाने किसने रख दिया है आईना दहलीज़ पर।